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गांव की अनोखी परंपरा: मुस्लिम समुदाय के लिए खास होता है जन्माष्टमी का पर्व

जन्माष्टमी का पर्व और बांसुरी का संगम सदियों से एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। बांसुरी, जिसे भगवान कृष्ण का प्रिय वाद्य माना जाता है, इस पर्व की शोभा को बढ़ाती है। लेकिन इस कहानी का एक अनूठा पहलू यह है कि मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के बड़ा सुमेरा मुर्गिया चक गांव में मुस्लिम समुदाय के लोग पीढ़ियों से बांसुरी बनाने का काम करते आ रहे हैं।

मुस्लिम समुदाय द्वारा बांसुरी निर्माण की परंपरा:

मुर्गिया चक गांव के दर्जनों मुस्लिम परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी बांसुरी बनाने का काम कर रहे हैं। इन परिवारों की आजीविका का मुख्य साधन बांसुरी है। स्थानीय लोगों का कहना है कि जन्माष्टमी के समय हमारे परिवार का उत्साह चरम पर होता है क्योंकि इस पर्व पर बांसुरी की मांग बहुत बढ़ जाती है। भगवान श्रीकृष्ण से जुड़े इस महापर्व के लिए बनाई गई बांसुरी हमारी सालभर की मेहनत का फल होती है।

कभी अंतरराष्ट्रीय मांग, अब तकनीक ने ली जगह:

गांव के लोगों का कहना है कि दो-तीन दशक पहले यहां की बनाई बांसुरी की बांग्लादेश, नेपाल और भूटान जैसे पड़ोसी देशों में भी बहुत मांग थी। इन बांसुरियों की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देती थी, और इससे अच्छी आय होती थी। लेकिन अब समय बदल गया है। नई तकनीकों और चीनी उत्पादों ने इन बांसुरियों की जगह ले ली है, और अब बच्चों और बड़ों की भी बांसुरी की मांग नहीं रही है।

पारंपरिक कला का संरक्षण:

बड़ा सुमेरा मुर्गिया चक गांव के नूर मोहम्मद जैसे कारीगर आज भी अपने पूर्वजों की परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। नूर मोहम्मद ने बताया कि उन्होंने यह कला अपने पूर्वजों से सीखी है, जब वे केवल 10 साल के थे। अब वे अपनी नई पीढ़ी को भी इस कला में प्रशिक्षित कर रहे हैं। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के कारण नई पीढ़ी इस पारंपरिक काम में दिलचस्पी नहीं ले रही है। इसलिए, परिवार के भरण-पोषण के लिए वे अपने बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के साथ अन्य रोजगार की तरफ भी बढ़ा रहे हैं।

नरकट की लकड़ी से बांसुरी का निर्माण:

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पास जो बांसुरी होती थी, वह नरकट की लकड़ी से बनी होती थी। नरकट से कलम के साथ-साथ बांसुरी का भी निर्माण किया जाता है। मुर्गिया चक गांव के कारीगर अब भी नरकट की लकड़ी का उपयोग करके पारंपरिक तरीके से बांसुरी का निर्माण करते हैं। नरकट की खेती कम होने के कारण कारीगरों को अन्य जिलों से इसे खरीदना पड़ता है।

आर्थिक चुनौतियाँ और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता:

कारीगर मोहम्मद रिजवान बताते हैं कि वे एक रुपए में नरकट खरीदकर लाते हैं और एक बांसुरी बनाने में लगभग पाँच रुपए तक का खर्च आता है। इसके बावजूद, बांसुरी की मांग में कमी आई है। फिर भी, जन्माष्टमी के पर्व पर उनकी बनाई बांसुरियों की सबसे अधिक बिक्री होती है, जिससे उन्हें थोड़ा राहत मिलती है।

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इस प्रकार, मुजफ्फरपुर का यह छोटा सा गांव न केवल बांसुरी की धुन से भरा हुआ है, बल्कि आपसी प्रेम, सद्भाव और सांस्कृतिक विरासत को भी संजोए हुए है। हालांकि, आधुनिकीकरण और नई तकनीकों के चलते यह पारंपरिक कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है, लेकिन इस गांव के लोग आज भी इसे जीवित रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं।

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